वर्तिका की कविता
वर्तिका अशोक मूलरूप से आजमगढ़ की हैं। नेटवर्क 18 दिल्ली में उप सम्पादक हैं। शहरी रोज़गार के लालच में खत्म होते गांव, खेत, खलिहान का मार्मिक वर्णन कविता के माध्यम से। अपनी जड़ें काट के आए खुद, खुद को अनाथ कर आए। बाबा का वो गाँव का घर, कल उसे किसी को सौंप के आए। लगा मसहरी, जिस दालान में करते थे दद्दा कटबइठी, वो दालान, वो मचिया-मसहरी सब बातें-यादें छोड़ के आए। जिस बगिया में, हर गर्मी खेले पेड़ वो सारे, भेज टाल पे हम अपना बचपन बेच के आए। देहरी, ओसारा महुआ, कुँआ कच्चे आँगन का, मन पक्का कर हम कल सौदा कर आए। अपनी जड़ें काट के...
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